Thursday, July 20, 2017

चलो ढूँढे एक नया घर

आंटी जी.............. आती हूँ, रूको ज़रा.......... हमें तो तुम्हारा कोई सुख नहीं है। बस रात को सोने के लिए आती हो। ( दरवाजा खोलते हुए आंटी ने मुँह पिचकाते हुए कहा।) आंटी क्या करें नौकरी की मजबूरी ही ऐसी है। सुनो जी! एक नया किराये का मकान तलाश लो। अब लगता है यहाँ का समय भी पूरा हो गया। छः महीने भी नहीं हुए और.......... क्यों क्या हुआ? कुछ कहा आंटी ने? हम्म्म्म............ कह रही थी कि उन्हें तो हमारा कोई सुख नहीं। मुझे आज तक समझ में नहीं आया कि किरायदार से मकान-मालिक कौन-सा सुख चाहते हैं? हम किराया समय से पहले दे देते हैं। घर मंे कोई बच्चा नहीं, जो दीवारों का पोस्टर बनाए। कोई शोर-शराबा, तोड़-फोड़ नहीं। जाने-पहचाने शरीफ़ लोग हैं हम। कब्जे़ का कोई डर नहीं। सुरक्षा की कोई परेशानी नहीं। जैसा वे कहते हैं अपने सीमित समय से समय निकालकर भी वह सब कर देते हैं। फिर भला और कौन-सा सुख रह जाता है। आप ही बताइए मुझे? क्या केवल पूरे दिन घर में रहने भर से सुख प्राप्त हो जाएगा। अगर मैं अपने कमरे मंे रहूँ और इन्हें बिलकुल बात न करूँ तो क्या इन्हें सुख मिल जाएगा। किराया समय पर न दूँ और शोर मचा-मचाकर जीना दूभर कर दूँ तो इन्हें अथाह सुख की प्राप्ति हो जाएगी। सुख की परिभाषा प्रत्येक व्यक्ति के लिए भिन्न होती है। पता नहीं इनकी परिभाषा में कौन-कौन से कठिन शब्द हैं जो मेरी तो समझ से बाहर हैं। आपको याद है पहले वाली मकान-मालकिन ने कितना तंग किया था मकान से निकालने के लिए। सीधे तौर पर कुछ नहीं कहा परन्तु काम ऐसे किए कि हम भागते नज़र आए। क्योें करते हैं ये लोग ऐसे? क्या हमें कहीं रहने का अधिकार नहीं। किरायदार का अर्थ है किराया देकर रहने वाले। फिर भला और किस प्रकार की उम्मीदें लगाए रहते हैं ये! हाँ! ये तो है। पर अचानक हुआ क्या उन्हें? तुमसे कोई बात हुई क्या? नहीं-नहीं। मैं जब रात को आई और दरवाजा खोलने के लिए उन्हें आवाज़ लगाई तो बस अंदर से वो यहीं बोलती आई थी। अब आप ही बताइये सुबह हम दोनों साढ़े चार बजे साथ ही तो निकले थे। उसके बाद रात को आठ बजे मैं घर आई। इस बीच जब हम मिले ही नही तो भला मैंने क्या कह दिया उन्हें! हाँ! लेकिन कल उनकी कुछ सहेलियाँ आई थी और मैं किसी काम से घर आकर सामान लेकर चली गई थी तो जरूर उन्होंने कुछ कहा होगा। मुझे उनके चेहरे के हाव-भाव तभी खटक गए थे। आंटी बहुत अच्छी हैं परन्तु...................... ‘‘तुम्हें तो अपने किरायदारों का कोई सुख नहीं बहन। ये तो घर में रहते ही नही। जब देखो बाहर ही रहते हैं। किसी परेशानी में तुम तो इन्हें बुला भी नहीं सकती। नौकरी-पेशा वालों को तो किरायदार ना ही रखो तो अच्छा है।’’ आंटी की सहेलियों के अनकहे भावों में ये शब्द स्पष्ट थे। देखो तुम परेशान मत होओ और उनकी तरफ से भी सोचो। हम अब तक जितने मकानों में रहे हैं वहाँ केवल बुजुर्ग पति-पत्नी रहते थे। इस मोहल्ले में भी जितने घर हैं एक या दो को छोड़कर सभी में मात्र बुजुर्ग ही रहते हैं। स्थिति समझने की कोशिश करो। ये ही हमारा भी भविष्य है। इन सबके बच्चे इन्हें किसी भी परिस्थितिवश छोड़कर इनसे अलग रह रहे हैं। अपने सपनों के घर जिसे इन्होंने ताउम्र सजाया है, उसमें ये बुजुर्ग अकेले रह जाते हैं। अपने साथ किसी प्रकार की अनहोनी होने के भय से ये अपनी सुरक्षा के लिए किरायदार रखते हैं। वहीं दूसरी ओर जिन कारणों से इनके बच्चे इनसे दूर हैं, उन्हीं कारणों से हम स्वयं भी तो अपने माता-पिता से दूर हैं। यह समाज की अस्त-व्यस्त सी अवस्था है और गंभीर भी। समझ नहीं आता इस प्रकार बढ़ते समाज की नई तस्वीर क्या होगी!!! परिवार बिखर रहे हैं और साथ ही अकेलेपन का आसरा परायों में अपनापन तलाशकर ढूँढा जा रहा है। असुरक्षा की भावना से लिप्त निगाहें अनजाने परिवार से आशा करती हैं। हमारी समस्या एवं स्थिति वही है जो आज इनके बच्चों की है। वे भी किसी अनजाने शहर में नौकरी की मजबूरी में अपने माता-पिता से दूर उनकी चिंता करते हुए किसी मकान को तलाश रहे होंगे। उन्हें भी कोई मकान-मालिक यह सोचकर मकान नहीं देना चाह रहा होगा कि नौकरी-पेशा लोग हैं इनके घर की सुरक्षा ही हमें करनी पडे़गी। एक विचित्र-सा, अकल्पनीय, दिशाहीन समाज परन्तु वास्तविकता यही है? हम्म्म्म..... इसका अन्तिम रूप क्या होगा? आपको क्या लगता है? अन्तिम रूप का तो कोई अंदाजा नहीं परन्तु हल दो नज़र आते हैं। या तो ‘ओल्ड एज होम’ की संख्या में वृद्धि हो जायेगी या बुजुर्गां को अपने-अपने सपनों के घर का मोह त्यागकर बच्चों के साथ स्थानान्तरित होना होगा। यह प्रत्येक व्यक्ति अथवा परिवार का व्यक्तिगत् निर्णय होगा कि वह किसे प्रमुखता देता है। बहरहाल कुछ भी हो दोनों ही स्थितियाँ दुःखदायी हैं। परन्तु बढ़ती तकनीकी ने प्रतिस्पर्धा की गति के आवेग को अत्यधिक तीव्र कर दिया है। उससे कोई भी अछूता नहीं रह सकता। सभी को इस अंधी दौड़ में दौड़ते रहने की बाध्यता है। समस्या यह है कि दौड़ में सभी की गति भिन्न-भिन्न है। जिसके कारण हमारे कई अपने पीछे छूट जाते हैं और कई बहुत आगे निकल जाते हैं। उनसे बिछड़ने का अहसास हमें तब होता है जब हम खुशी और ग़म के अवसरों पर स्वयं को अकेला पाते हैं। आगे आने वाली तो प्रत्येक पीढ़ी पारिवारिक सुखों से वंचित ही रह जायेगी। उन्नति एवं परिवार वैकल्पिक हो जाएँगे। किसी एक का चयन कुंठा का जनक बन जाएगा। आज जिस बहुआयामी तरक्की के प्रति हम लालायित हैं, कल उसी पर हमें पछतावा होगा। परन्तु वर्तमान में कोई और विकल्प भी तो नही है। खैर! चलो एक नये मकान की तलाश करते हैं। हमारी पीढ़ी का सुख तो न हमारे माता-पिता को है, न हमारे बच्चों को और न स्वयं हमें ही।

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