Tuesday, July 19, 2011

‘‘एक फूल दो माली’’


‘भ्रष्टाचार’ की पल-पल खुलती पोल ने न केवल बड़ी-बड़ी सियासी ताकतों को बेनकाब किया अपितु लोकतंत्र की जड़ों को भी हिलाया दिया। वास्तविकता सामने आना और इस अशुद्ध चरित्र के विरूद्ध कोई कार्रवाई होना, दोनों अलग-अलग बातंे हैं। यथा इस फेर में न पड़ते हुए भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता के सशक्तिकरण व उसके द्वारा उठाये गये कदमों की बात करते हैं।
भ्रष्टाचार के विरूद्ध छेड़ी गई दो मुहिमों ने संप्रग सरकार की रातों की नींद व दिनों के चैन का हरण कर लिया। अन्ना हजारे का अध्याय अभी समाप्त भी नहीं हुआ था कि बाबा रामदेव ने जो सियासी भूचाल लाया उसने कई प्रश्नों को स्थायित्व दिया। अन्ना हजारे व बाबा रामदेव दोनों एक ही मंजिल के लिए सफर कर रहे हैं परन्तु दोनों के मूलभाव भिन्न-भिन्न हैं । एक (अन्ना हजारे) का मार्ग निष्पक्ष, निस्वार्थ व लोकहितकारी प्रतीत होता है। साधु न होते हुए भी साधुत्व के सभी गुण अन्ना हजारे स्वयं में समाहित किये हुए है। वहीं दूसरी ओर राजनीति की दहलीज पर अपनी चाबी का ताला टंागने की चाह रखने वाले बाबा के इस संघर्ष से निजी स्वार्थ की बू आती है। निश्चित रूप से किसी पर किसी भी प्रकार की उंगली उठाने से पूर्व प्रमाणिक साक्ष्य का होना आवश्यक है। अतः इस प्रकरण को भी इस प्रकार समझा जा सकता है-
इस संघर्ष का आरम्भ भ्रष्टाचार की लपटों से पीड़ित जनता पर लोकपाल विधेयक की मलहम से हुआ। अन्ना हजारे ने देश की सम्पूर्ण जनता का नेतृत्व करते हुए संप्रग सरकार से लोकपाल विधेयक पारित करने की मांग की। यह मुद्दा गर्म जोशी से चल ही रहा था कि अचानक बाबा रामदेव को भ्रष्टाचार रूपी दैत्य से युद्ध करने का जोश आया और वे विशेष सुविधाओं के साथ अपने योग-कम-अनशन पर बैठ गये रामलीला मैदान में। निश्चित रूप से बाबा ने सटीक व आवश्यक मुद्दों को सरकार के सम्मुख प्रस्तुत किया। परन्तु तुरत-फुरत लिये गये उनके इस निर्णय ने हजारों लोगों के प्राणों को संकट में डाल दिया। बाबा की भक्ति में लीन भक्त बाबा के शब्दों का अनुसरण करते हुए रामलीला मैदान पहुँच गये। प्रायः देखा गया है कि इस प्रकार के किसी भी एकत्रीकरण पर तत्कालीन सरकार किसी न किसी बहाने से गिरफ्तारी का वारंट निकलती ही है। उत्तर प्रदेश में भट्टा पारसौल मामले में राहुल गाँधी, सचिन पायलट आदि की गिरफ्तारी राजनीति में चूहा-बिल्ली के इस खेल का प्रमाण है। बाबा की गिरफ्तारी या बाबा के विरूद्ध किसी भी प्रकार की कार्रवाही निश्चित थी। यूपी सरकार हो या कोई अन्य सभी का प्रायः कदम यही होता है। बाबा जानते थे इस प्रकार की गतिविधि पर उन्हें प्राप्त जनसमर्थन का परिणाम हंगामा होगा और उस हंगामे को नियन्त्रित करने के लिए लाठी चार्ज और...........
परिणामतः बाबा के प्रति बढ़ी श्रृद्धा एवं सहानुभूति। पूर्व नियोजित यह सम्पूर्ण प्रकरण बिल्कुल उसी तर्ज पर चला जिसकी कल्पना बाबा ने की थी। इसका शिकार हुई निर्दोष व भोली जनता। बाबा जनता के विश्वास पर राजनीति की रोटियाँ सेंकने की कला भली-भांति जानते हैं और वे सफल भी हुए।
बाबा ने इतने विशाल आयोजन में जनता के लिए किसी रक्षात्मतक रणनीति की योजना क्यांे नहीं बनाई? विशाल भीड़ को बाबा ने अपनी जिम्मेदारी पर एकत्रित किया था जिसे निभाने में वे पूर्णतः असफल रहे। इस प्रकरण में एक प्रश्न बार-बार उठाया गया कि मासूम जनता पर लाठीचार्ज क्यूँ किया गया? इसका उत्तर प्रमाण के साथ बहुत सरल है- किसी न किसी को तो पिटना था- या तो पुलिस पिटती या जनता। हाल ही में मेरठ बिजली बम्बा पर हुए दंगों में जनता ने पुलिस को दौड़ा-दौड़ाकर पीटा। सर्वविदित है जिसका लाठी उसी की भैंस। जनता यदि साधन सम्पन्न स्थिति में होती तो निश्चित रूप से पुलिस को पीटती। पर क्या पुलिस वाले किसी के पिता किसी के भाई नहीं हैं? बाबा की अंध भक्ति ने लोगों की विचारणीय क्षमता को सम्मोहित किया हुआ है। वह दूरदर्शी हुए बिना वर्तमान के मोह को जीना चाहते हैं और बाबा का अंधानुसरण कर रहे हैं। विचारणीय है कि अन्ना हजारे के समर्थन में उतरा बॉलीवुड व अन्य बुद्धिजीवी वर्ग बाबा की राजनीतिक भूख को पहले ही भांप गये। यही कारण रहा कि इनमें से किसी ने भी बाबा के अनशन का समर्थन नहीं किया। स्मरणीय है कि कुछ वर्षों पूर्व बाबा ने राजनीति में आने की अपनी इच्छा व्यक्त की थी और तभी से बाबा किसी न किसी राजनीतिक बयानबाजी के लिए सुर्खियों में रहे हैं। आखिर साधु को राजनीति के इस चस्के का क्या अर्थ है? साधु तो निःस्वार्थ भाव से जनकल्याण के लिए समर्पित होते हैं। यह कैसा समर्पण है?
दिग्विजय सिंह द्वारा बाबा रामदेव के योग का नामकरण ‘योग उद्योग’ काफी सार्थक प्रतीत होता है। यह योग उद्योग नहीं तो और क्या है? बाबा से योग सीखाने के लिए अग्रिम पंक्तियों में बैठने का टिकट रू 25000 और पीछे बैठे लाचार गरीब जनता। योग को बढ़ावा देने वाले बाबा का यह पक्षपाती व्यवहार समझ से परे है। इस उद्योग ने बाबा को अरबपति साधु बना दिया। साधु को सम्पत्ति संग्रह की शिक्षा किस धर्मशास्त्र में दी जाती है, यह शोध का विषय है। व्यक्तिगत हैलीकॉप्टर, एसी युक्त भवन- ये कैसे साधु?
भ्रष्टाचार के विरूद्ध या कहें संप्रग सरकार के विरूद्ध आरम्भ की गई इस मुहिम में बाबा की राजनीतिक मंशा को उनके एक और कृत्य ने प्रमाणित किया। अनशन आरम्भ करते ही उन्होंने अन्ना हजारे की उपेक्षा की। जब दोनांे की लक्ष्य एक ही था और मार्ग भी समानान्तर थे तो क्यों नहीं बाबा ने अन्ना हजारे की जंग का समर्थन कर इस संघर्ष को मजबूती प्रदान की। अतिआत्मविश्वास के वशीभूत रामदेव ने इस संघर्ष को दिशाहीन कर दिया। एक ही उद्देश्य की पूर्ति की जिजीविषा के बावजूद देश की जनता अन्ना हजारे और रामदेव, दो धाराओं में बँट गई। फेसबुक पर आते अपडेट के अध्ययन से ज्ञात हुआ बहुत से लोग दिग्भ्रमित हो भ्रष्टचार को भूल अन्ना समर्थन और बाबा की आलोचना के चक्रव्यूह में उलझ कर रह गये हैं। और मुख्य मकसद से भटक गये। बाबा ने इस मुहिम को कमजोर कर दिया।
इस प्रकरण में नाटकीय मोड़ तब आया जब बाबा को स्त्रीवेश में देखा गया। बाबा ने अनशन गाँधीवादी नीतियों का अनुसरण करते हुए प्रारम्भ किया था। परन्तु सच कहें तो बाबा ने गाँधी जी की नीतियों का घोर अपमान किया। सभी देशभक्तों ने आजादी की जंग में लाठियाँ खाई। लाला लाजपत राय अंग्रेजों की लाठी की चोट के कारण वीरगति को प्राप्त हुए। उन सार्थक व अचूक नीतियों के अनुसरण का ढ़िढ़ोंरा पीटने वाले साधु बाबा जान बचाकर भागे स्त्रीवेश में? कितना शर्मनाक व अपमानजनक है यह सब। निश्चित रूप से उस दिन स्वतंत्रता सेनानियों व वीर देश भक्तों की आत्मा रोई होगी। बाबा ने जान बचाने के लिए महिलाओं का संरक्षण प्राप्त किया। यह कैसी वीरता थी? कैसे दृढ़ संकल्प था? क्या इन महिलाओं के भरोसे बाबा ने अनशन आरम्भ किया था?
इसके पश्चात् बाबा ने पुनः जनता के कंधों पर बंदूक चलाने की रणनीति बनाई। 11000 लोगों की फौज जो भ्रष्टाचार के विरूद्ध लड़ने के लिए तैयार की जायेगी। समझ में नहीं आता कि बाबा यह सब ना समझी में कर रहे हैं या जानबूझकर देश की जनता को ‘देसी आतंकवाद’ का पाठ पढ़ा रहे हैं। क्या इस प्रकार की भड़काऊ रणनीति देश में कानून व्यवस्था को चरमराने के लिये पर्याप्त नहीं है? निश्चित रूप से है। वास्तव में बाबा स्वार्थपूर्ति के जनून में आत्मनियत्रण व विवेक को खो चुके हैं। गाँधी-नेहरू के देश में हिंसा के उपदेश, सम्पूर्ण विश्व में भारत के वीरों की किरकिरी करा रहे हैं। भोली कहे जाने वाली जनता यदि ऐसे उपदेशों का अनुसरण करती है तो कड़े शब्दों में कहा जाये, तो निश्चित रूप से वह भोली नहीं बेवकूफ है।
कुछ सीमाएँ बाबा ने लाँघी और कुछ पोल बाबा की स्वतः खुल गई। योग द्वारा 200 वर्षों तक जीने का दावा करने वाले बाबा 6 दिन अनशन करने में सफल न हो सके। फिर कर दिया बाबा ने योग का अपमान। विश्व भर में योग सेंटर चला रूपया कमाने वाले बाबा ने योग पर प्रश्नचिन्ह आरोपित कर दिया। विश्व में भारतीय योग का प्रचार-प्रसार कर सम्मान दिलाने वाले ने ही भारतीय योग को शर्मिंदा कर दिया।
वर्तमान परिस्थितियाँ यह है कि बाबा ने मौन धारण कर लिया। यह एक सरल माध्यम है। बाबा जानते है कि जब भी वे मुँह खोलेंगे उनसे कुछ न कुछ अंटशंट बोला जायेगा। वे पहले ही अपनी बहुत सी पोल खोल चुके है। कहा भी जाता है ‘जो मुँह खोले सो राज बोले’। बाकि रहस्य उद्घटित न हो इसके लिए बाबा का मौन रहना ही उचित है।
इस सम्पूर्ण घटनाक्रम में विपक्ष व मीडिया दोनों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। विपक्ष ने राजनीतिक दाँवपेंचों की सभी पोथियाँ खोल दी। आरोप-प्रत्यारोप राजनीति की पुरानी परम्परा है। परन्तु क्या इसकी कोई सीमा निधारित नहीं होनी चाहिए? इस परम्परा का पालन करना कोई विवशता नहीं, मात्र राजनीतिक लाभ के लिए देश को बाँटना कहाँ तक उचित है? क्या निजस्वार्थ देशहित से बड़ा हो चला है?
मीडिया का रामदेव कवरेज इसके दायित्वबोध को संदिग्ध करता है। बड़ौत में जैन मुनि प्रभसागर के साथ हुए अत्याचार का मीडिया कवरेज नाममात्र के लिए था। एक मुनि की वर्षों की तपस्या भंग कर दी गई। उनकी आस्था, उनके सम्मान को खण्डित किया गया और मीडिया चुप। क्यों मीडिया ने इस प्रकरण पर विशेषांक नहीं निकाले? क्या मीडिया वास्तव में बाबा की व्यक्तिगत सम्पत्ति हो गया है? किंकर्तव्यविमुढ़ता की इस चरमावस्था ने यह सोचने के लिए बाध्य कर दिया है कि आखिर हमारे लिए देश कितना महत्वपूर्ण है? इस पीढ़ी को उपहारस्वरूप मिली आजादी को क्या चंद लोगों के सुपूर्द कर देना समझदारी है? इस वैचारिक गुलामी से आजादी पाना बहुत जटिल है। देश की जनता को विवेक को जाग्रत करने की आवश्यकता है। सोचिये, समझिये और विचारिये अन्यथा आपके मस्तिष्क पर किसी और का राज होगा।

Tuesday, July 12, 2011

डेल्ही बेली


लगान, तारे जमीं पर, रंग दे बसंती, 3-इडिएटस जैसी फिल्मों का निर्माण कर आमिर खान ने फिल्म विषयों को एक विस्तृत आयाम प्रदान किया। इन विषयों की पृष्ठभूमि वे समस्याएँ थी जिनसे हम अक्सर दो-चार होते है परन्तु निजी जीवन की व्यस्तताओं एवं आवश्यकतापूर्ति की जद्दोजहद में इनकी अवहेलना कर जाते हैं। आमिर खान ने न केवल इन विषयों की प्रस्तति से जनसाधारण को सामाजिक दायित्वों के प्रति सजग किया अपितु इसी प्रकार की बहुतेरी विद्रूपताओं हेतु शान्तिपूर्ण ढं़ग से समाधान प्राप्ति का मार्गदर्शन भी किया। गाँधीवादी सत्याग्रह को जीवंत करता कैंडल मार्च रूपी समाधान आज सम्पूर्ण भारत में विरोध प्रदर्शन का अचूक यंत्र बन गया है। निःसन्देह आमिर खान की यह प्रयोगधर्मिता समाजोपयोगी निर्देशन के अपने उद्देश्य को प्राप्त कर पाई है।
इसी क्रम में अपेक्षित डेल्ही बेली का निर्माण समझ से परे रहा। यह फिल्म क्या संदेश देना चाहती थी? या इसमें प्रयुक्त भाषा को आमिर खान समाज के किस वर्ग को दिनचर्या के अनिवार्य अंग के रूप में भेंट करना चाहते थे? इन प्रश्नों के उत्तर-प्राप्ति में मैं असमर्थ रही। यदि मान भी लिया जाये कि यह मनोरंजन आधारित फिल्म थी, तो मनोरंजन का क्षेत्र इतना संकीर्ण व स्तर इतना निम्न कैसे हो गया? मनोरंजन चार्ली चैपलन द्वारा भी किया जाता था और यह कहने में कोई कंजूसी नही की जानी चाहिए कि वह ‘बेमिसाल’ था।
फिल्म निर्देशन एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है। यह समाज का पथ प्रदर्शन करती है। समाज की जड़ांे में ऐसे विषयों का अकूत भण्डार है जिन्हें समाज स्वीकार करने में भयभीत होता है परन्तु उनका समाधान चाहता है। इसका मुख्य कारण नेतृत्व क्षमता का अभाव है। फिल्म निर्माता, लेखक, पत्रकार इत्यादि वे अघोषित नेता हैं जो समाज को दिशा प्रदान करते हैं। यह दिशा प्रभावोत्पादक व सकारात्मक परिणाम प्रस्तुत करने में समर्थ हो, यह संकल्प लिया जाना आवश्यक है।