Monday, May 16, 2011
वाह री पुलिस
वाह री पुलिस
ये कैसी फिज़ा मेरे शहर ही हो रही है,
अपना साया भी अब ख़ौफज़दा करता है।
वैसे तो ये सिलसिला सदियों पुराना है परन्तु कुछ महीनों से बढ़ती आवृति ने शहरवासियों में असुरक्षा के भाव को सींचा है। यह बढ़ती आवृति है उन अपराधों की जो छोटी-मोटी चोरियों से लेकर जघन्य हत्याकांड तक के रूप में प्रतिदिन समाचार-पत्र व टी. वी. चैनलों में घुसपैठ किये हुए है। बात शीर्ष नेता अमरपाल की हत्या की हो, सूर्य पैलेस में लूट की हो, सड़कों पर छिनते पर्सों की हो, लड़कियांे से होती बदसलूकी की हो या कॉलेज हॉस्टलों में होती मारपिटाई की हो, ये सभी घटनाएँ पुलिस प्रशासन की ढ़ीली पड़ती पकड़ व निरर्थक होते वजूद को प्रदर्शित करती है। पुलिस पहरेदार है समाज की, रक्षक है जन-जन की परन्तु यदि ये रक्षक अपने दायित्वों से विमुख होने लगे तो निःसन्देह भक्षकों का तांडव प्रारम्भ हो ही जाना है। पुलिस भर्ती के समय रट्टु तोते मियाँ की भांति शपथ ग्रहण तो कर लेते हैं परन्तु उन शब्दों की भाव, अर्थ व दायित्व बोध से अनजान हैं। ऐसा लगता है कि पुलिस प्रशासन रोटी किसी और की खाता है और सेवा किसी और को प्रदान कर रहा है। किसी शहरवासी को सुरक्षा का अहसास नहीं है, हाँ लकिन चोर-डाकू-लुटेरे बखूबी फल-फूल रहे हैं अर्थात बिंदास चाँदी हो रही है इनकी। उम्दा सुरक्षा घेरे में बहतरीन माल-पानी। शाबास!
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